Skip to main content

"नीक लागे धोती, नीक लागे कुरता, नीक लागे गउवा जवरिया हो, नीक लागे मरद भोजपुरिया सखी, नीक लागे मरद भोजपुरिया..!" इस लोकप्रिय भोजपुरी गीत में खांटी देहाती अंदाज में होली की ठिठोली रची-बसी है. बसंती बयार से आई फागुन की धमक, हर साल कुछ नयेपन का एहसास लेकर आती है. फिर क्या बच्चे, क्या जवान व क्या बूढ़े. सभी के जेहन पर इसका भरपूर असर पड़ता है. भले ही संवेदना व्यक्त करने की खातिर कोई अपनी भावनाओं को शब्दों का रूप नहीं दे पाए. लेकिन इतना तो तय है कि सबके मन में अजब सी मस्ती छाई व दिल में गुदगुदी होती रहती है. बिना कुछ किए ही मिजाज हर पल अलसाये व बौराए रहता है, कभी-कभी रोमांटिक भी हो जाता है. वहीँ माह के अंत में होली के बहाने कहीं ना कहीं प्रकृति भी हमें सीख देती है, कि आपने भादो की बरसात झेली है तो बसंत का भी लुत्फ़ उठाइए. . ठीक वैसे ही जैसे जीवन में दुःख है तो सुख भी आता है. 

खासकर भोजपुरी के गढ़ माने जाने वाले आरा, मोतिहारी, छपरा, सिवान, बेतिया, बक्सर, गाजीपुर, बलिया, देवरिया, कुशीनगर आदि क्षेत्रों में फागुन की सतरंगी छटा की तो बात ही निराली है. पूर्वी चंपारण के एक छोटे से गाँव कनछेदवा में बिताई बचपन की होली को याद कर नास्टैलजिक हो जाता हूँ. खट्टी-मीठी यादों के बीच वो खुशनुमा पल आज भी जेहन में कैद हैं. होली के कुछ दिन पहले से ही दोस्तों के संग मिलकर, दूसरो को रंगने की कवायद शुरू हो जाती थी. लेकिन क्लास में तो अकेले ही सबको तंग किए रहता. तब सातवीं में पढ़ता था. दोस्तों को बिना बताए रंग लगाने के लिए नयी-नयी तरकीबें निकालते रहता. उस समय दस पैसे में रंग की पुडिया आती थी. मैं रोजाना लाल या हरे रंग की आठ-दस पुडिया लेकर बेंच पर बैठता. एक बेंच पर तक़रीबन पांच लड़के बैठते थे. मैं चुपके से पुडिया फाड़ बारी-बारी से सबके सिर के पीछे से हाथ ले जाकर उनके बालों पर इसे झाड़ देता था. कल होके जब वे स्नान करते तो उनका पूरा बदन ही रंगीन हो जाता. और देखने वाला हँसे बिना नहीं रह पाता कि सामने वाले को किसी ने मामू बना दिया है. पकड़ में नहीं आए इसलिए हर दिन बेंच बदल अपनी कारामात चालू रखता. शरारतों के दौरान कभी-कभी भेद खुलने पर बात पीटने-पिटाने तक पहुँच जाती थी. पर अगले ही दिन सभी लड़के गिले-शिकवे भूला एक हो जाते, जैसे कुछ हुआ ही ना हो.

होली के रोज शाम में गाँव के बड़े-बूढ़े व युवाओं की टोली ढोल-मंजीरे लेके फगुआ गीत गाते सभी के दरवाजे पर पहुँचती. “पनिया लाले लाल ये गऊरा तोहरो के रंगेब” की तान हो या फिर ”वृन्दावन कृष्ण खेले होली वृन्दावन” की आलाप, हुड़दंग के साथ बसंती कोरस में सुरों की महफ़िल सज जाती. सबके माथे पर लगे अबीर-गुलाल से चढ़ी खुमारी कुछ यूँ मदहोश करती कि बदहवास थप्पड़ बजाते हुए हर कोई झूमने को मजबूर हो जाता. इसी दौरान गृह स्वामी प्लेट में बादाम, नारियल, किशमिश व छुहारा सत्कार के तौर पर लाकर देता. जिसे हम पॉकेट में रख लेते. फिर घर पर मौजूद बराबर या छोटी उम्र वालों के माथे व बड़ों के पाँव पर अबीर स्पर्श कराते थे. और “सदा आनंद रहे ये द्वारे” गाते हुए दूसरे दरवाजे की ओर रूख करते.

खैर, ये तो रही गुजरे जमाने की बात. अभी की बात करें तो आज भी गाँव वैसे ही है थोड़ी-बहुत बदलाव के साथ. पर भौतिकतावाद की आंधी ने देहात में भी एक नयी सभ्यता को जन्म दिया है. जहाँ भाईचारे, भोलेपन, आपसी सौहार्द, व रहन-सहन मौलिकता पर इर्ष्या, स्वार्थीपन, मक्कारी व बनावटीपन का बदनुमा धब्बा लग चुका है. गाँव से बेहिसाब पलायन, पंचायत चुनाव की गन्दी राजनीति व आधुनिक बनने की होड़ ने ग्रामीणों से बहुत कुछ छीन भी लिया है. उनके लिए होली महज खाओ-पियो व ऐश करो वाला त्यौहार रह गया है. सड़क पर दारू के नशे में बहक गाली-गलौज करती युवकों की टोली कुछ अलग ही नजारा प्रस्तूत करती है. वहीँ भले मानस इस दिन घर में ही दुबकना पसंद करते है. रही बात फगुआ गीत की तो इसे गाने वाली पूरानी पीढ़ी या तो गुजर गई या उसकी राह पर है. मोबाइल से भोजपुरी के अश्लील गाने सुनने वाले नवही को गली-गली घूमकर फगुआ गाने में शर्म लगती है. उनकी नज़रों में यह परम्परा आउटडेटेड हो चली है. अब अबीर व रंग लगाने का सरोकारी दौर भी नहीं रहा. वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को भी निजी हित साधने के तौर पर ढोया जा रहा है. क्योंकि यह संस्कार नहीं दिखावा बन गया है. 
com

Comments

Popular posts from this blog

DAUD         आज, ना जाने क्यों ? थक गया हूँ जीवन की इस दौड में कोई राह नहीं सामने दूर तक इन उनींदी आँखों में नया जीवन चाहता हूँ आज मैं रोना चाहता हूँ भय था कभी विकराल लडकपन था नादान माँ का असीम प्यार पिता की डाँट और दुलार जून की दोपहरी में, छत पर वही बिछौना चाहता हूँ आज मै रोना चाहता हूँ नाना‍‍ नानी की कहानियाँ दादा दादी की परेशानियाँ भैया दीदी की लडाईयाँ पापा मम्मी की बलाइयाँ बस उन्हीं लम्हों में आज फिर खोना चाहता हूँ आज मैं रोना चाहता हूँ साथियों के संग होली का हुडदंग बारिश में कागज की नाव दबंग गर्मियों में छुट्टियों के दिन स्कूल में सीखने की उमंग अपने अकेलेपन में, वो टूटे मोती पिरोना चाहता हूँ आज मैं रोना चाहता हूँ कुछ कर गुजरने की चाह सफलता की वो कठिन राह मुश्किलों का सामना करने की पापा की वो सलाह आज फिर से वही सपने संजोना चाहता हूँ ना जाने क्यों, आज मैं रोना चाहता हूँ शायद कुछ छोड आया पीछे आगे बढ़ने की हौड में पीछे रह गये सब, मैं अकेला इस अंधी दौड में लौटा दो कोई मेरा बचपन, पुराना खिलौना चाहता हूँ हाँ, आज मैं रोना चाह...
जंगल  कट गए बंगले बन गए हरी रंग की धरती काली पीली हो गयी  कट रहे है पेड़ गुम रहा है  जंगल कैसे होगी बारिश कौन देखेगा हरियाली  रोज रोज बनते बंगले रोज रोज कटते जंगल क्या होगा प्रक्रति का या तो होगी धूप या होगी ठण्ड जंगल ऐसे ही कटे तो क्या होगा प्रक्रति का           
                                                       APNA KANPUR                               manzill   की   chah   Mai   न   Zane   कहा   से   कहा   आ   gya .             अब  एक   sedhe   chadta   हू   2   dusri   dikh   zati   है .  dusri   badhta   हू   2   tesri   आ zati   है .       नई  jagah   Mai   अपने   bindas   कानपुर   मैं   dudhne   की   kosis   करता   हू . मिलता  नही   सहर   thak   कर   khada   हो   zata   हू   .. नए  saher   मुझे   नए   मिल   दोस्त .  ...