इस जर्जर काया को और कितने दिन पहनूंगा। ईश्वर की मर्जी को
टाला
नहीं जा सकता। जीवन का मोल मैंने पहचान लिया, शायद बहुत देर
हो
गयी। रोशनी की जगमगाहट बिखर चुकी कब की। अब दिया बुझने
को
है, अब सांस थमने को है।
समय को पकड़ने की कोशिश में खुद को भूल गया। पर लगता है
आज
मैं ठहर गया। उड़ने की चाह होती है, मगर क्या करें, पंख अब
इतराने से
डरते हैं, फड़फड़ाने से डरते हैं।
इन हाथों को कांपने से मैं रोक नहीं पा रहा। सरकने की आदत नहीं,
मजबूरी है। थकान होती है अब। सब नीरस–सा लगता है।
इंसान जो चाहता है, हासिल करने के लिए जद्दोजहद करता है।
लेकिन न
चाह खत्म होती है, न जद्दोजहद, सिर्फ इंसान खत्म हो जाता है।
मैं भी खत्म हो रहा हूं। बाकी हैं सासें अभी, बाकी हैं यादें अभी।
बाकी हैं
वो पल जो रह रहकर इठला रहे हैं। जमीन अपनी है, जिसपर आंख
लगनी है, फिर कभी न खुलने के लिए।
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